Wednesday, May 28, 2014

विपत्ति को संपत्ति बनाईये

एक चित्रकार ने एक  चित्र बनाया जिसमें सर्प, मोर, हिरन, और शेर एक साथ एक वृक्ष की छाया में बैठे थे. चित्र के नीचे यह पंक्ति लिखी हुयी थी-
' कहलाने एकत बसत अहि -मयूर-मृग-बाघ'.

जयपुर के राजा मिर्जा जय सिंह ने उस चित्र को खरीद लिया. और अपने राज कवि बिहारी लाल से कहा कि उस दोहे की पूर्ती करें. बिहारी लाल ने तत्काल यह पंक्ति लिख कर दोहे को पूरा कर दिया-
' जगत तपोवन सो कियो दीरध दाघ निदाघ'

कवि का तात्पर्य स्पष्ट था कि कड़ी गर्मी ने जगत को तपोवन के समान पवित्र कर दिया है और ये पशु अपना सहज बैर भाव भूलकर एक वृक्ष की छाया में बैठ गए हैं.

विपत्ति के समय पशु पक्षी भी सहज बैर भाव भूल जाते हैं. ऐसी बात नहीं है, मनुष्य भी ऐसा करते हुए देखे जाते हैं. देश में विदेशी आक्रमण की दशा में विभिन्न राजनीतिक दल, सांप्रदायिक दल आदि अपना पारस्परिक मतभेद भुलाकर विदेशी आक्रान्ता के विरुद्ध एक जुट हो जाते हैं. आग लगने पर, भूचाल आदि दैवी आपदा आने पर सब लोग एक दुसरे की मदद करते हुए देखे जाते हैं. और तो और विरोधी अथवा जानी दुश्मन के पुत्र के निधन के शोक पर लोग आंसू बहते हुए देखे जाते हैं. इस सन्दर्भ में हम सन 1947 में भारत विभाजन के अवसर पर  तथाकथित शरणार्थियों के पलायन की घटना की चर्चा करना चाहेंगे. कई-कई हजार स्त्री पुरुष कई-कई दिनों तक एक साथ रहने को विवश हुए थे. परन्तु उस अवसर पर चोरी, अपहरण, बलात्कार आदि की एक भी घटना नहीं घटी आदि .

व्यक्तिगत जीवन में भी विपत्ति हमारे मनोभावों का परिष्कार करती हुयी देखि जाती है.  विपत्ति में हम बैर भाव भूलते ही हैं हम अपने दोषों को दूर करने का संकल्प करते हुए देखे जाते हैं. इतना ही नहीं विपत्ति अथवा दुःख के समय हम भगवान   का स्मरण जैसा पवित्र कार्य करने लगते हैं. वह एक विपत्ति का ही अवसर था जब महाराणा प्रताप को मरणासन्न अवस्था में देखकर उनके खून का प्यासा छोटा भाई समस्त शत्रु भाव को भूलकर उनके चरण में गिर पड़ा था. इस सन्दर्भ में महाभारत का यह कथन मनन करने योग्य है- विपत्ति के आने पर अपनी रक्षा के लिए व्यक्ति को अपने पड़ोसी शत्रु से भी मेल कर लेना चाहिए. विपत्ति के भावात्मक पक्ष को लक्ष्य करके लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने लिखा है कि -
' कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण है, जो मनुष्य साहस के साथ उन्हें सहन करते हैं वे अपने जीवन में विजयी होते हैं'.

विपत्ति के हमारा मन प्रायः अंतर्मुखी हो जाता है, हम विपत्ति के कारणों पर तथा उसके निवारण के उपायों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने लगते हैं. और प्रायः ऐसा होता है कि विपत्ति की अग्नि में तपकर हमारे कुछ सद्गुण उभरकर आ जाते हैं. डिजरैली ने बहुत ठीक कहा है कि विपत्ति सहना कोई शिक्षा नहीं है. यह सत्य तो सर्वविदित है कि विपत्ति के समय हमें शत्रु मित्र की पहचान भली प्रकार से हो जाती है. प्लूटार्क नामक विचारक का यह कथन मनन करने योग्य है -

' विपत्ति ही केवल ऐसी तुला है जिस पर हम मित्रों को तौल सकते हैं'
गोस्वामी तुलसीदास का यह कथन उल्लेखनीय है-
' धीरज, धर्म,मित्र ,अरु नारी
आपातकाल परखिये चारी '
अर्थात विपत्ति के समय ही अपने और पराये की पहचान हो जाती है.

विपत्ति वास्तव में एक बहुत बड़ी संपत्ति है. वह हमारे मनोविकारों का परिष्कार करके मन में सद्भाव, सहयोग, शुभ संकल्प आत्म विश्वास आदि श्रेष्ठ गुणों को विकसित करती है.

विपत्ति हमारे मन के मेल को काटती है और हमें भावात्मक दृष्टि प्रदान करती है.

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का यह कथन हमारा मार्गदर्शक होना चाहिए-

' विपत्ति में भी जिस ह्रदय में सद्ज्ञान न हो, वह ऐसा सूखा हुआ वृक्ष है जो पानी पाकर पनपता नहीं , बल्कि सड़ जाता है'

27.04.99