Saturday, May 31, 2014

जनम जनम की प्यास

मेरे  प्रियतम
है क्या मेरा अपना
जो कर दूँ तुम्हें अर्पित
जब हर रात्री , हर भोर
हर क्षण , हर पल, हर ओर
तुम ही तुम हो
तुम स्वयं अपनी माया
हो स्वयं अपनी छाया
है जब जगत द्वेत से वंचित
तब कैसे क्या करूँ समर्पित !

वाद्द् तुम्हारे
गीत तुम्हारे
स्वर तुम्हारे
भाव भी नहीं हमारे
ब्रह्मांड इतना विराट
कि.-----------
कहीं नहीं दिखते पाट
बह रही ऐसी चेतन रसधार
देह का नहीं बचा आधार
फिर कैसे कोई डूबे
कैसे उबरे
अब तो,
सभी कुछ है -
केवल तुम्हारे सहारे
क्षितिज में समा गए किनारे
मुझे नहीं आता वंदन
न आता करना अभिनंदन
तुम ही चन्दन-
तुम ही धूप
तुम हो वाणी
फिर भी मूक
तुम ही हर रूप
तुम ही बनते अरूप
तुम जग के श्रृंगार
हो तुम कण -कण की पुकार
करो तुम -
मुझ पर उपकार
अब कर लो
मुझे स्वीकार
अंतस भेद मिटा दो
जनम-जनम की प्यास बुझा दो।

- नरेन्द्र मोहन

09. 05. 99