Friday, May 23, 2014

दिव्या से ....

आकाशगामी चंद्रमा तो स्थिर, गंभीर गति से अपनी यात्रा पूर्ण किये जाता है, परन्तु तिथले जल में पड़ता  उसका प्रतिबिम्ब साधारण कारणों से भी क्षुब्ध है .

' अनभ्यास विद्या का शत्रु है'

दिव्या, मैं मृत्यु भय नहीं मानता ... मृत्यु क्या है ? असितत्व का अंत. जिसका असितत्व नहीं, जिसे अनुभूति नहीं. वह भय अनुभव भी नहीं कर सकत.भय है जीवित रहकर पीड़ा और पराभव सहने में, भय है, जीवन भर की पीड़ा और पराभव में. तुम्हें अंक में लेकर समाप्त हो जाने से कौन इच्छा अपूर्ण रह जाएगी ? फिर उसमें भय क्या ? वह सुखद असितत्व का सुखद अंत है.

सुख और दुःख अन्योंयाश्रम हैं उनका असितत्व केवल विचार और अनुभूति के विश्वास में है.  इच्छा ही सर्वावस्था में दुःख का मूल है. एक इच्छा कि पूर्ती दूसरी इच्छा को जन्म देती है . वास्तविक सुख इच्छा की पूर्ती में नहीं इच्छा की निवृत्ति में है.


वेश्या का जीवन मोटी  बत्ती और राल मिले तेल से पूर्ण दीपक की तरह है.अनुकूल वायु में अति प्रज्ज्वलित लौ की भांति या उल्कापात की भांति क्षणिक तीव्र प्रकाश करके शीघ्र समाप्त हो जाता है. कुलवधू का जीवन माध्यम प्रकाश से चिरकाल तक टिमटिमाते दीपक की भांति है. ममता भरी शरण के हाथ प्रतिकूल परिस्थितियों के झंझावत से उसकी रक्षा करते हैं. यह अपने निर्वाण से पूर्व अपने असितत्व से दूसरे दीप जलाकर अपना प्रकाश उसमें देख पाती है. स्वयं उसका निर्वाण  हो जाने पर भी उसका प्रकाश बना रहता है. .... ऐसी परंपरा ही मनुष्य की अमरता है.

 यही है वेश्या के जीवन का विद्रूप. यही है उसकी सफलता, समृद्धि और आत्मनिर्भरता. वेश्या देती है अपना असितत्व और पाती है केवल दृव्य.  परन्तु पराश्रिता कुल- वधु अपने समर्पण के मूल्य में दुसरे पुरुष को पा जाती है और किसी दूसरे पर भी अधिकार पाती है. 

' प्रयत्न और चेष्टा जीवन का स्वभाव और गुण हैं. जब तक जीवन है, प्रयत्न और चेष्टा रहना स्वाभाविक है'. 

सुख और दुःख अन्योंयाश्र्य हैं. सुख की इच्छा से ही दुःख होता है. संसार में जितना सुख है, उससे बहुत अधिक दुःख है, जब संसार ही दुःख पूर्ण है तो वह उससे भागकर कहाँ जायेगा.

...... निरंतर प्रयत्न ही जीवन का लक्षण है. जीवन के एक प्रयत्न या एक अंश की विफलता सम्पूर्ण जीवन की विफलता नहीं है.

जागते हुए चीटीं कि शक्ति सोये हुए हाथी से अधिक होती है. 

अनेक परस्पर विरोधी तत्वों का समुच्चय ही जीवन है. एक ही प्रयोजन से मनुष्य परस्पर विरोधी व्यव्हार करता है. नारी के प्रति अनुराग से, उसके आश्रय की कामना से ही पुरुष उसे अपने अधीन रख कर उसे आत्मनिर्भर नहीं रहने देता. नारी प्रकृति के विधान से नहीं, समाज के विधान से भोग्य है. प्रकृति में और समाज में भी स्त्री परुष अन्योंयाश्र्य है. पुरुष का प्रश्रय पाने से ही नारी परवश है. परन्तु भद्रे, नारी के जीवन की सार्थकता के लिए पुरुष का आश्रय आवश्यक है. और नारी भी पुरुष का आश्रय है. ....